Deva Movie Review: मलयालम फिल्म का हिंदी रीमेक, शाहिद कपूर का ‘कबीर सिंह’ अंदाज चला फेल

Deva Movie Review: मलयालम सिनेमा की चमकदार विरासत को हिंदी में लाने का दावा करने वाले निर्देशक रोशन एंड्रूज की फिल्म ‘देवा’ बॉक्स ऑफिस पर धूल चाट रही है। यह फिल्म 12 साल पुरानी मलयालम फिल्म ‘मुंबई पुलिस’ का रीमेक है, जिसमें पृथ्वीराज सुकुमारन ने यादगार भूमिका निभाई थी। रोशन ने हिंदी दर्शकों को यकीन दिलाया था कि यह “रीमेक नहीं, नई कहानी” है, लेकिन फिल्म देखते ही सच सामने आ गया। शाहिद कपूर का ‘कबीर सिंह’ वाला अंदाज, आधे-अधूरे किरदार और बेतरतीब स्क्रिप्ट ने फिल्म को डूबने से नहीं

Deva Movie Review: कहानी क्या हैं?

फिल्म की कहानी शाहिद कपूर के किरदार ‘देव’ के इर्द-गिर्द घूमती है, जो एक गुस्सैल पुलिस अधिकारी है। एक हादसे के बाद उसकी याददाश्त चली जाती है, और वह अपने अतीत की गुत्थियाँ सुलझाने लगता है। यहाँ तक तो सब ठीक था, लेकिन फिल्म का असली झटका तब लगता है जब देव को पता चलता है कि वह “देव ए” नहीं, बल्कि “देव बी” है। यह ट्विस्ट मलयालम फिल्म के क्लाइमैक्स की झलक देता है, लेकिन हिंदी संस्करण में इसे इतनी फूहड़ तरीके से पेश किया गया है कि दर्शकों का धैर्य टूट जाता है। 

रोशन एंड्रूज ने दावा किया था कि यह रीमेक नहीं है, लेकिन कोच्चि को मुंबई बनाने और पात्रों के नाम बदलने के अलावा फिल्म में कुछ नया नहीं दिखता। “मुंबई पुलिस” की तरह यहाँ भी कहानी एक पुलिस अधिकारी की जांच पर टिकी है, लेकिन न तो तनाव है और न ही कोई रहस्य। 

शाहिद कपूर का ‘कबीर सिंह’ वाला अंदाज हुआ फैल!

Deva Movie Review

शाहिद कपूर ने ‘कबीर सिंह’ के गुस्सैल अंदाज को यहाँ फिर से दोहराया है, लेकिन वह जादू काम नहीं आया। उनका गुस्सा न तो विश्वसनीय लगता है और न ही उनके किरदार में कोई गहराई है। मलयालम फिल्म में पृथ्वीराज सुकुमारन ने जिस तरह से एंटनी का किरदार निभाया था, उसकी तुलना में शाहिद का “देव” फीका और बेतुका लगा फेन को।

फिल्म के पोस्टर में अमिताभ बच्चन को दिखाने का मतलब भी समझ से परे है। बड़े बी का स्क्रीन टाइम महज दो दृश्यों तक सीमित है, और उनकी मौजूदगी से फिल्म को कोई फायदा नहीं हुआ। 

आधा दर्जन लेखको ने कहा, देवा की कहानी में दम नहीं

फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी इसकी स्क्रिप्ट है। बॉबी-संजय, सुमित अरोड़ा, अरशद सईद समेत छह लेखकों ने मिलकर भी कहानी में कोई जान नहीं डाली। मलयालम फिल्म का सामाजिक द्वंद्व और पात्रों की गहराई यहाँ गायब है।

एक्शन सीन्स की बात करें तो सुप्रीम सुंदर और अब्बास अली मुगल जैसे स्टंट डायरेक्टर्स के बावजूद, फिल्म में कोई यादगार लड़ाई नहीं है। शाहिद का “भसड़ मचा” गाना भी दर्शकों के कानों को सुनाने के लिए काफी है। 

फिल्मांकन ने बिगाड़ा गेम, कहाँ मुंबई कहाँ है?

फिल्म का सबसे बड़ा झटका उसका फिल्मांकन है। मुंबई की गलियों, भीड़भाड़ और जीवंतता का नामोनिशान तक नहीं है। सिनेमेटोग्राफर बॉस्को लेस्ली मार्टिस ने शहर को एक उबाऊ बैकड्रॉप की तरह पेश किया है। सुभाष साहू की साउंड डिजाइन भी फिल्म के मूड को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ती। 

‘देवा’ ने एक बार फिर साबित कर दिया कि बिना सोचे-समझे रीमेक बनाना खतरनाक हो सकता है। शाहिद कपूर का गुस्सा, छह लेखकों की कलम और रोशन एंड्रूज का निर्देशन—सब मिलकर भी फिल्म को बचा नहीं पाए। जहाँ मलयालम फिल्म ने दर्शकों को झकझोरा, वहीं हिंदी संस्करण ने नींद लाने का काम किया। 

फिल्म समीक्षक राजीव मसन्द के शब्दों में, “हिंदी सिनेमा का हीरो अब ‘कबीर सिंह’ और ‘एनिमल’ की हिंसा में उलझकर रह गया है। ‘देवा’ जैसी फिल्में इसी संकट का नतीजा हैं।

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